शनिवार, जून 09, 2007

मुंह में कलम पकड़ लिखी खुद की तकदीर

मोरना(मुजफ्फरनगर)। खुद को कर बुलंद इतना कि तेरी तकदीर से पहले, खुदा बंदे से यह पूछे बता तेरी रजा क्या है? प्रसिद्ध शायर अल्लामा इकबाल की इन पंक्तियों को सच कर दिखाया है विकलांगता का दंश झेल रहे अरुण कुमार ने। विकास खंड मोरना क्षेत्र के छोटे से गांव खाईखेड़ा के इस होनहार सपूत ने दोनों हाथ कटे होने के बावजूद यूपी बोर्ड की हाईस्कूल परीक्षा में सफलता प्राप्त कर असंभव को भी संभव कर दिखाया है। अरुण के बुलंद इरादे के आगे विकलांगता भी बेबस नजर आयी। कलम को दोनों कटे हुए हाथों के बीच पकड़कर तथा मुंह की सहायता से लिखकर अरुण ने इस बार हाईस्कूल की परीक्षा पास की है। अरुण के हौसले और उसकी प्रतिभा का हर कोई कायल है। ग्राम खाईखेड़ा में एक गरीब निर्धन परिवार में जन्मे 16 वर्षीय अरुण की कहानी हर उस शख्स के लिए प्रेरणा स्रोत है, जो विकलांगता को अभिशाप समझ हिम्मत हार चुका है। अरुण के पिता भोपाल सिंह सैनी मेहनत-मजदूरी और मशीन से किराये पर चारा काटकर अपने परिवार का पेट पालता है। उसके इस काम में उसका बेटा अरुण भी हाथ बंटाता था। जब वह कक्षा सात में था, तभी एक दिन चारा काटते समय उसके दोनों हाथ मशीन में आ गए। उस हादसे ने अरुण को हमेशा के लिए विकलांग बना दिया। अरुण का एक हाथ कोहनी तथा दूसरा हाथ कलाई तक काटकर चिकित्सकों ने उसे जिंदगी तो दे दी, लेकिन इस हादसे के बाद वह दूसरे का मोहताज हो गया? उधर, इस दुर्घटना के बाद मजदूर भोपाल सिंह पर मुसीबतों का पहाड़ टूट गया। अपने लाडले के इलाज पर उसने रुपये उधार लेकर लगाए। गरीबी के कारण उसे गाय और भैंस भी बेचनी पड़ी। बेटे की पढ़ाई व भविष्य को लेकर चिंतित भोपाल सिंह निराश हो गया। परिवार के लिए उसने घर के किनारे ही परचून की छोटी सी दुकान खोलकर उस पर अरुण को बैठा दिया। गांव वाले सामन लेने अरुण की दुकान पर आते और उसकी विकलांगता पर अफसोस जताते हुए पैसे उसके पास रखकर चले जाते। अरुण को यह बेबसी नागवार गुजरी। उसने दृढ़ निश्चय के साथ फिर से पढ़ाई शुरू करने की ठान ली, लेकिन विकलांगता इस काम में सबसे बड़ा रोड़ा साबित हो रही थी। इसलिए उसने दुकान पर ही बैठकर दोनों हाथों के बीच पेन पकड़कर मुंह की सहायता से लिखने का अभ्यास शुरू कर दिया। उसकी मेहनत रंग लायी और एक साल में ही उसे लिखने का अभ्यास हो गया। इसके लिए उसे कई बार उपहास का पात्र होना पड़ा, इसके बावजूद उसने हिम्मत नहीं हारी। एक दिन वह ककरौली के अपने पुराने स्कूल जनता इंटर कालेज में एडमीशन लेने पहुंच गया। उसके दोनों हाथ कटे देख शिक्षक भी एडमीशन देने से हिचक गए, लेकिन लिखने का अभ्यास देख उसकी हिम्मत के आगे कालेज स्टाफ को नतमस्तक होना पड़ा। कालेज के प्रवक्ता हरपाल पंवार तथा प्रेमचंद आदि ने उसके शैक्षिक खर्च का बीड़ा उठाया तथा प्रधानाचार्य सतेंद्र सैनी ने हर संभव सहायता देने की घोषणा की। इसके बाद अरुण ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वह रोज स्कूल जाने लगा। लिखाई-पढ़ाई उसकी दिनचर्या बन गयी। इसका नतीजा यह हुआ कि हाईस्कूल की परीक्षा उसने संस्थागत छात्र के रूप में दी। हालांकि नियमानुसार बोर्ड द्वारा लिखने में असमर्थ छात्र को बगल में किसी निचली कक्षा के छात्र को बैठाकर उत्तर लिखवा सकता है, लेकिन अरुण ने अपने आत्मविश्वास व लिखने की कला पर विश्वास करते हुए किसी की सहायता लेना नागवार समझा। इसी का नतीजा रहा कि अरुण ने हाईस्कूल की परीक्षा पास कर इतिहास रच डाला। अरुण आगे की पढ़ाई जारी रख स्नातक करना चाहता है।

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